दादी प्रकाशमणि
जब भी कभी विश्व पर अशांति के काले बादल मँडराए और मानव दिग्भ्रमित होने लगा तब-तब इस देवभूमि पर किसी न किसी दिव्य आत्मा का अवतरण हुआ, युग कोई-सा भी हो, परंतु मनुष्य चाहे तो अपने अंदर छिपी शक्तियों को ईश्वर के सान्निध्य से जागृत कर महापुरुष अथवा देवतुल्य बन सकता है।
यह विद्या केवल पुरुषों पर ही नहीं बल्कि महिलाओं पर भी समान रूप से लागू होती है। ऐसी ही एक महान विभूति ने इस कथन को ऐसे युग में साकार किया, जिस युग में इस तरह की सिर्फ कल्पना की जा सकती है।
दादी प्रकाशमणिजी का जन्म 1922 को हैदराबाद (सिंध) में एक बड़े ज्योतिषी के घर हुआ। दादी प्रकाशमणिजी का बचपन का नाम रमा था। 14 वर्ष की आयु में सन् 1936 में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के साकार संस्थापक प्रजापिता ब्रह्मा के संपर्क में आईं और उन्होंने उसी समय यह निर्णय कर लिया कि अब हमारा जीवन सद्गुणों से मुक्त ईश्वरीय सेवा के लिए रहेगा।
तरुण अवस्था में रमा की लगन, निष्ठा, प्रतिभा और दिव्यता की आभा को देखते हुए संस्था के संस्थापक प्रजापिता ब्रह्मा बाबा ने उनका नाम रमा से बदल प्रकाशमणि रखा। उन्हें यह विश्वास हो गया था कि यह एक सच्ची मणि है और इसका आध्यात्मिक प्रकाश पूरे विश्व को आलौकिक करेगा।
दादी प्रकाशमणिजी का जन्म 1922 को हैदराबाद (सिंध) में एक बड़े ज्योतिषी के घर हुआ। दादी प्रकाशमणिजी का बचपन का नाम रमा था। सन् 1936 में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विवि के संस्थापक ब्रह्मा के संपर्क में आईं।
स्वपरिवर्तन से विश्व परिवर्तन की संकल्पता के साथ संस्था की आध्यात्मिक क्रांति के अभियान से जुड़ते हुए स्वयं को ईश्वरीय कार्य हेतु समर्पित करने वाली दादी प्रकाशमणि को देश-विदेश में ईश्वरीय संदेश देने का सुअवसर प्राप्त हुआ। सही अर्थों में इस धरा पर देवदूत के रूप में उभरीं दादी ने 1969 में ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने पर संस्था की प्रशासिका के रूप में कार्यभार संभाला।
अपनी नैसर्गिक प्रतिभा, दिव्य दृष्टि, सहज वृत्ति और मन-मस्तिष्क के विशेष गुणों के बलबूते पर दादी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस संस्था की न केवल पहचान स्थापित कीबल्कि इसके अद्भूत विकास का करिश्मा भी कर दिखाया।
दादीजी सदैव स्वयं को ट्रस्टी और निमित्त समझकर चलती थीं। शांतिदूत पुरस्कार तथा मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डॉक्टरेट खिताब दिया गया। दादीजी मूल्यों के साथ-साथ स्वस्थ एवं स्वच्छ प्रकृति की भी पक्षधर थीं।
दादीजी का यह आध्यात्मिक प्रकाश निरंतर पूरे विश्व को आलौकिक करते हुए 25 अगस्त 2007 को इस देह को त्याग कर संपूर्णता को प्राप्त हुआ। इस तरह से एक आध्यात्मिक सशक्तीकरण युग का अंत हो गया।
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मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
रविवार, 24 अक्टूबर 2010
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय
“परमात्मा एक है, वह निराकार एवं अनादि है। वे विश्व की सर्वशक्तिमान सत्ता है और ज्ञान के सागर है।”
इस मूलभूत सिद्धांत का पालन करते हुए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय इन दिनों विश्व भर में धर्म को नए मानदंडों पर परिभाषित कर रहा है। जीवन की दौड़-धूप से थक चुके मनुष्य आज शांति की तलाश में इस संस्था की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं।
यह कोई नया धर्म नहीं बल्कि विश्व में व्याप्त धर्मों के सार को आत्मसात कर उन्हें मानव कल्याण की दिशा में उपयोग करने वाली एक संस्था है। जिसकी विश्व के 72 देशों में 4,500 से अधिक शाखाएँ हैं। इन शाखाओं में 5 लाख विद्यार्थी प्रतिदिन नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करते हैं।--
संस्था की स्थापना दादा लेखराज ने की, जिन्हें आज हम प्रजापिता ब्रह्मा के नाम से जानते हैं।
दादा लेखराज अविभाजित भारत में हीरों के व्यापारी थे। वे बाल्यकाल से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। 60 वर्ष की आयु में उन्हें परमात्मा के सत्यस्वरूप को पहचानने की दिव्य अनुभूति हुई। उन्हें ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता के प्रति खिंचाव महसूस हुआ। इसी काल में उन्हें ज्योति स्वरूप निराकार परमपिता शिव का साक्षात्कार हुआ। इसके बाद धीरे-धीरे उनका मन मानव कल्याण की ओर प्रवृत्त होने लगा।
उन्हें सांसारिक बंधनों से मुक्त होने और परमात्मा का मानवरूपी माध्यम बनने का निर्देश प्राप्त हुआ। उसी की प्रेरणा के फलस्वरूप सन् 1936 में उन्होंने इस विराट संगठन की छोटी-सी बुनियाद रखी। सन् 1937 में आध्यात्मिक ज्ञान और राजयोग की शिक्षा अनेकों तक पहुँचाने के लिए इसने एक संस्था का रूप धारण किया।
इस संस्था की स्थापना के लिए दादा लेखराज ने अपना विशाल कारोबार कलकत्ता में अपने साझेदार को सौंप दिया। फिर वे अपने जन्मस्थान हैदराबाद सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) में लौट आए। यहाँ पर उन्होंने अपनी सारी चल-अचल संपत्ति इस संस्था के नाम कर दी। प्रारंभ में इस संस्था में केवल महिलाएँ ही थी।
बाद में दादा लेखराज को ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम दिया गया। जो लोग आध्यात्मिक शांति को पाने के लिए ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ द्वारा उच्चारित सिद्धांतो पर चले, वे ब्रह्मकुमार और ब्रह्मकुमारी कहलाए तथा इस शैक्षणिक संस्था को ‘प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय’ नाम दिया गया।
इस विश्वविद्यालय की शिक्षाओं (उपाधियों) को वैश्विक स्वीकृति और अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हुई है।
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1 http://picasaweb.google.co.in/sanjogm916108/SchoolServicesByBKBhagwan
2 http://www.indiashines.com/brahakumaris-photos-102929
3 http://www.indiashines.com/brahakumaris-photos-102941
4 http://www.indiashines.com/brahakumaris-photos-102945
5 http://www.indiashines.com/brahakumaris-photos-102963
6 http://picasaweb.google.co.in/hometab=mq
B. K. BHAGWAN, SHANTIVAN, +919414534517, +919414008991
“परमात्मा एक है, वह निराकार एवं अनादि है। वे विश्व की सर्वशक्तिमान सत्ता है और ज्ञान के सागर है।”
इस मूलभूत सिद्धांत का पालन करते हुए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय इन दिनों विश्व भर में धर्म को नए मानदंडों पर परिभाषित कर रहा है। जीवन की दौड़-धूप से थक चुके मनुष्य आज शांति की तलाश में इस संस्था की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं।
यह कोई नया धर्म नहीं बल्कि विश्व में व्याप्त धर्मों के सार को आत्मसात कर उन्हें मानव कल्याण की दिशा में उपयोग करने वाली एक संस्था है। जिसकी विश्व के 72 देशों में 4,500 से अधिक शाखाएँ हैं। इन शाखाओं में 5 लाख विद्यार्थी प्रतिदिन नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करते हैं।--
संस्था की स्थापना दादा लेखराज ने की, जिन्हें आज हम प्रजापिता ब्रह्मा के नाम से जानते हैं।
दादा लेखराज अविभाजित भारत में हीरों के व्यापारी थे। वे बाल्यकाल से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। 60 वर्ष की आयु में उन्हें परमात्मा के सत्यस्वरूप को पहचानने की दिव्य अनुभूति हुई। उन्हें ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता के प्रति खिंचाव महसूस हुआ। इसी काल में उन्हें ज्योति स्वरूप निराकार परमपिता शिव का साक्षात्कार हुआ। इसके बाद धीरे-धीरे उनका मन मानव कल्याण की ओर प्रवृत्त होने लगा।
उन्हें सांसारिक बंधनों से मुक्त होने और परमात्मा का मानवरूपी माध्यम बनने का निर्देश प्राप्त हुआ। उसी की प्रेरणा के फलस्वरूप सन् 1936 में उन्होंने इस विराट संगठन की छोटी-सी बुनियाद रखी। सन् 1937 में आध्यात्मिक ज्ञान और राजयोग की शिक्षा अनेकों तक पहुँचाने के लिए इसने एक संस्था का रूप धारण किया।
इस संस्था की स्थापना के लिए दादा लेखराज ने अपना विशाल कारोबार कलकत्ता में अपने साझेदार को सौंप दिया। फिर वे अपने जन्मस्थान हैदराबाद सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) में लौट आए। यहाँ पर उन्होंने अपनी सारी चल-अचल संपत्ति इस संस्था के नाम कर दी। प्रारंभ में इस संस्था में केवल महिलाएँ ही थी।
बाद में दादा लेखराज को ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम दिया गया। जो लोग आध्यात्मिक शांति को पाने के लिए ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ द्वारा उच्चारित सिद्धांतो पर चले, वे ब्रह्मकुमार और ब्रह्मकुमारी कहलाए तथा इस शैक्षणिक संस्था को ‘प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय’ नाम दिया गया।
इस विश्वविद्यालय की शिक्षाओं (उपाधियों) को वैश्विक स्वीकृति और अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हुई है।
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4 http://www.indiashines.com/brahakumaris-photos-102945
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