मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय

दादी प्रकाशमणि


जब भी कभी विश्व पर अशांति के काले बादल मँडराए और मानव दिग्भ्रमित होने लगा तब-तब इस देवभूमि पर किसी न किसी दिव्य आत्मा का अवतरण हुआ, युग कोई-सा भी हो, परंतु मनुष्य चाहे तो अपने अंदर छिपी शक्तियों को ईश्वर के सान्निध्य से जागृत कर महापुरुष अथवा देवतुल्य बन सकता है।

यह विद्या केवल पुरुषों पर ही नहीं बल्कि महिलाओं पर भी समान रूप से लागू होती है। ऐसी ही एक महान विभूति ने इस कथन को ऐसे युग में साकार किया, जिस युग में इस तरह की सिर्फ कल्पना की जा सकती है।

दादी प्रकाशमणिजी का जन्म 1922 को हैदराबाद (सिंध) में एक बड़े ज्योतिषी के घर हुआ। दादी प्रकाशमणिजी का बचपन का नाम रमा था। 14 वर्ष की आयु में सन्‌ 1936 में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के साकार संस्थापक प्रजापिता ब्रह्मा के संपर्क में आईं और उन्होंने उसी समय यह निर्णय कर लिया कि अब हमारा जीवन सद्गुणों से मुक्त ईश्वरीय सेवा के लिए रहेगा।

तरुण अवस्था में रमा की लगन, निष्ठा, प्रतिभा और दिव्यता की आभा को देखते हुए संस्था के संस्थापक प्रजापिता ब्रह्मा बाबा ने उनका नाम रमा से बदल प्रकाशमणि रखा। उन्हें यह विश्वास हो गया था कि यह एक सच्ची मणि है और इसका आध्यात्मिक प्रकाश पूरे विश्व को आलौकिक करेगा।

दादी प्रकाशमणिजी का जन्म 1922 को हैदराबाद (सिंध) में एक बड़े ज्योतिषी के घर हुआ। दादी प्रकाशमणिजी का बचपन का नाम रमा था। सन्‌ 1936 में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विवि के संस्थापक ब्रह्मा के संपर्क में आईं।





स्वपरिवर्तन से विश्व परिवर्तन की संकल्पता के साथ संस्था की आध्यात्मिक क्रांति के अभियान से जुड़ते हुए स्वयं को ईश्वरीय कार्य हेतु समर्पित करने वाली दादी प्रकाशमणि को देश-विदेश में ईश्वरीय संदेश देने का सुअवसर प्राप्त हुआ। सही अर्थों में इस धरा पर देवदूत के रूप में उभरीं दादी ने 1969 में ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने पर संस्था की प्रशासिका के रूप में कार्यभार संभाला।

अपनी नैसर्गिक प्रतिभा, दिव्य दृष्टि, सहज वृत्ति और मन-मस्तिष्क के विशेष गुणों के बलबूते पर दादी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस संस्था की न केवल पहचान स्थापित कीबल्कि इसके अद्भूत विकास का करिश्मा भी कर दिखाया।

दादीजी सदैव स्वयं को ट्रस्टी और निमित्त समझकर चलती थीं। शांतिदूत पुरस्कार तथा मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डॉक्टरेट खिताब दिया गया। दादीजी मूल्यों के साथ-साथ स्वस्थ एवं स्वच्छ प्रकृति की भी पक्षधर थीं।

दादीजी का यह आध्यात्मिक प्रकाश निरंतर पूरे विश्व को आलौकिक करते हुए 25 अगस्त 2007 को इस देह को त्याग कर संपूर्णता को प्राप्त हुआ। इस तरह से एक आध्यात्मिक सशक्तीकरण युग का अंत हो गया।

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